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जीवन कैसे बदलता है...

एक शहर एक घर एक सड़क एक रेस्तराँ और वो एक कॉफ़ी , कब आपको काटने के लिये दौड़ जाये , अंदाज़ा लगाना मुश्किल है । कभी कभी लगता है एक पक्ष के भाव को इतना ठोस नहीं होना चाहिये की बाद में वो फिर द्रव्य का आकार ले ले और अंत उसका गैस में परिवर्तित होकर हो । मृत्यु और विरह के बाद आदमी इस बात से ख़ुद को ढाँढस बाँध लेता है की वापसी के प्रयास किये गये लेकिन वापस नहीं लाया जा सका लेकिन इन सबके बाद भी सबसे ज़्यादा कुछ दुःखदायी है तो वो है किसी का अकास्मिक विरह हो जाना , बात होते होते अचानक से संवाद का टूट जाना , फिर चूर चूर हो जाना और फिर ऐसा कुछ हो जाना जैसे कुछ था ही नहीं । बिलकुल सुन्ना..... कभी कभी सोचता हूँ की ये सब जो हुआ इस एक दो साल में ये कितना भयावह है , ना जाने कितने झूठ बोले गये , कितने वादे किये गये और अंत में सबकुछ शून्य या उससे भी कम पर जाकर ख़त्म । वो समय जिसमें में सबसे ज़्यादा ख़ुश था , नाचता था , फ़्लॉंट करता था , वो समय बीत तो गया है लेकिन उसको रोज़ अभी काटता हूँ ताकि कट के ख़त्म हो जाये लेकिन ऐसा हुआ नहीं और न होगा । मैं ये नहीं मानता की मैं दुखी हूँ या परेशान हूँ , म